वर्तमान परिवेश ऐसा हो गया है कि हम जाने अन्जाने में बच्चों को मानसिक रुप से बीमार बना रहे हैं तुलना के खेल में उलझा कर। बचपन से ही हम अन्य बच्चों से तुलना करके अपने बच्चों को तुलना का खेल सिखाने में लगे हैं।
हम अपने बच्चों को अपने पड़ोसी, अपने सगे सम्बन्धी के बच्चों से तुलना करके अक्सर नीचा दिखाते हुए उसके सा बनने को कहते हैं। हम यह भुल जाते हैं कि हर बच्चे कि रुचि अलग अलग होती है वह हमारे दबाव में अलग शिक्षा और शिक्षा/नौकरी/व्यवसाय क्षेत्र का चयन करता है और ऐसे दबाव में किये गये चयन से सफलता की उम्मीद कम और अरुचि व अवसाद की उम्मीद ज्यादा प्रबल हो जाती है।
हम जानते हैं कि प्रत्येक जीव, प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर की अद्भुत और अद्वितीय रचना है कोई एक दुसरे सा बिल्कुल समान नहीं हो सकता लेकिन फिर भी अभिभावक शिक्षक बच्चों की एक दुसरे से तुलना हमेशा करते रहते हैं ।
इस तुलना के खेल/बीमारी में हम बच्चों के वास्तविक स्वरूप और आत्मा को ही नष्ट करते जा रहे हैं।
तुलना के इस खेल से निकल कर हमें स्वयं के और बच्चों के अस्तित्व को समझना चाहिए, हमें समझना चाहिए कि हम सब में अलग अलग गुण हैं, कोई प्रत्येक क्षेत्र में परिपूर्ण/पारन्गत नहीं हो सकता है, हमें समझना होगा हम सब का यह जीवन ईश्वर के आर्शीवाद है जिसने हमें अद्भुत, अद्वितीय, अतुलनीय बनाया है और हमें अपने बच्चे को उसकी रुचि को ध्यान रख कर उसे मानसिक रुप से बीमार न बनाकर उसके अपने क्षेत्र में सफल बनाना चाहिए।
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